Lekhika Ranchi

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प्रेमाश्रम--मुंशी प्रेमचंद


59.

मानव-चरित्र न बिलकुल श्यामल होता है न बिलकुल श्वेत। उसमें दोनों ही रंगों का विचित्र सम्मिश्रण होता है। स्थिति अनुकूल हुई तो वह ऋषितुल्य हो जाता है, प्रतिकूल हुई तो नराधम। वह अपनी परिस्थितियों का खिलौना मात्र है। बाबू ज्ञानशंकर अगर अब तक स्वार्थी, लोभी और संकीर्ण हृदय थे तो वह परिस्थितियों का फल था। भूखा आदमी उस समय तक कुत्ते को कौर नहीं देता जब तक वह स्वयं सन्तुष्ट न हो जाये। अप्रसन्नता ने उनकी श्यामलता को और भी उज्ज्वल कर दिया था। उन्होंने ऐसे घर में जन्म लिया था। जिसने कुल-मर्यादा की रक्षा में अपनी श्री का अन्त कर दिया था। ऐसी अवस्था में उन्हें सन्तोष से ही शान्ति मिल सकती थी, पर उनकी उच्च शिक्षा ने उन्हें जीवन को एक बृहत, संग्राम-क्षेत्र समझना सिखाया था। उनके सामने जिन महान् पुरुषों के आदर्श रखे गये थे उन्होंने भी संघर्ष-नीति का आश्रय ले कर सफलता प्राप्त की थी। इसमें सन्देह नहीं कि शिक्षा ने उन्हें लेख और वाणी में प्रवीण, तर्क में कुशल, व्यवहार में चतुर बना दिया था, पर उसके साथ ही उन्हें स्वार्थ और स्वहित का दास बना दिया था। यह वह शिक्षा न थी जो अपनी झोंपड़े का द्वार खुला रखने का अनुरोध करती है, जो दूसरों को खिला कर आप खाने की नीति सिखाती है। ज्ञानशंकर किसी को आश्रय देने की कल्पना भी न कर सकते थे जब तक अपना प्रासाद न बना लें, वह किसी को मुट्ठी भर भी अन्न भर न दे सकते थे, जब तक अपनी धान्यशाला को भर न लें।

सौभाग्य से उनका प्रासाद निर्मित हो चुका था। अब वह दूसरों को आश्रय देने पर तैयार थे, उनकी धन्यशाला परिपूर्ण हो चुकी थी। अब उन्हें भिक्षुओं से घृणा न थी। सम्पत्तिशाली हो कर वह उदार, दयालु, दीनवत्सल और कर्तव्यपरायण हो गये थे। लाला प्रभाशंकर की पुत्रियों के विवाह में उन्होंने खासी मदद की थी और पुत्रों के मातम में शरीक होने के लिए भी गोरखपुर से आये थे। प्रेमशंकर के प्रति भी भ्रातृ-प्रेम जाग्रत हो गया था, यहाँ तक कि लखनपुर वालों के मुक्त हो जाने पर उन्हें बधाई दी थी। गायत्री की मृत्यु का शोक समाचार मिला तो उन्होंने उसका संस्कार बड़ी धूमधाम से किया और कई हजार रुपये खर्च किये। उसकी यादगार में एक पक्का तालाब खुदवा दिया। जब तक वह फूस के झोपड़े में रहते थे, आग की चिनगारियों से डरते थे। उनका पक्का महल था फुलझड़ियों का तमाशा सावधानी से देख सकते थे।

ज्ञानशंकर अब ख्याति और सुकीर्ति के लिए लालायित रहते थे। लखनऊ के मान्यगण उन्हें अनधिकारी समझ कर उनसे कुछ खिंचे रहते थे। और यद्यपि गोरखपुर से पहले ही उन्होंने सम्मानपद प्राप्त कर लिया था, पर इस नयी हैसियत में देख कर अक्सर लोग उनसे जलते थे। ज्ञानशंकर ने दोनों शहरों के रईसों से मेल-जोल बढ़ाना शुरू किया। पहले वह राय साहब के अव्यवस्थित व्यय को घटाना परमावश्यक समझते थे। कई घोड़े, एक मोटर, कई सवारी गाड़ियाँ निकाल देना चाहते थे। लेकिन अब उन्हें अपनी सम्मान रक्षा के लिए उस ठाट-बाट को निबाहना ही नहीं, उसे और बढ़ाना जरूरी मालूम होता था, जिसमें लोग उनकी हँसी न उड़ायें। वह उन लोगों की बार-बार दावतें करते, छोटे-बड़े सबसे नम्रता और विनय का व्यवहार करते और सत्कार्यों के लिए दिल खोल कर चन्दे देते। पत्र-सम्पादकों से उनका परिचय पहले ही से था अब और भी घनिष्ठ हो गया। अखबारों में उनकी उदारता और सज्जनता की प्रशंसा होने लगी। यहाँ तक कि साल भी न बीतने पाया था कि वह लखनऊ की ताल्लुकेदार सभा के मंत्री चुन लिये गये। राज्यधिकारियों में भी उनका सम्मान होने लगा। वह वाणी में कुशल थे ही, जातीय-सम्मेलनों में ओजस्विनी वक्तृता देते। पत्रों में वाह-वाह होने लगती। अतएव इधर तो जाति के नेताओं में गिने जाने लगे, उधर अधिकारियों में भी मान-प्रतिष्ठा होने लगी।

किन्तु अपनी मूक, दीन प्रजा के साथ उनका बर्ताव इतना सदय न था। उन वृक्षों में काँटे न थे, इसलिए उनके फल तोड़ने में कोई बाधा न थी। असामियों पर अखराज, बकाया और इजाफे की नालिशें धूम से हो रही थीं, उनके पट्टे बदले जा रहे थे और नजराने बड़ी कठोरता से वसूल किये जा रहे थे। राय साहब ने रियासत पर पाँच लाख का ऋण छोड़ा था। उस पर लगभग २५ हजार वार्षिक ब्याज होता था। ज्ञानशंकर ने इन प्रयत्नों से सूद की पूर्ति कर ली। इतने अत्याचार पर भी प्रजा उनसे असन्तुष्ट न थी। वह कड़वी दवाएँ मीठी करके पिलाते थे। गायत्री की बरसी में उन्होंने असामियों को एक हजार कम्बल बाँटे और ब्राह्मणों को भोज दिया। इसी तरह राय साहब के इलाके में होली के दिन जलसे कराये और भोले-भाले असामियों को भर पेट भंग पिला कर मुग्ध कर दिया। कई जगह मंडियाँ लगवा दीं जिससे कृषकों को अपनी जिन्सें बेचने में सुविधा हो गयी और सियासत को भी अच्छा लाभ होने लगा।

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